समझदार (लघुकथा)
समझदार
“मंजरी बहुत समझदार है, वो इस बार भी इनकार ना करेगीI”
सासू माँ ने उसकी तरफ देखकर मुस्कुराते हुए कहाI लेकिन आज यह समझदार शब्द हथौड़े की तरह उसके मन मस्तिष्क पर चोट कर गया और उसकी ऊँगली पकड़कर अतीत की गलियों में ले गयाI बचपन से लेकर जवानी तक कि न जाने कितनी ही घटनाएं मुँह बाये सामने खड़ी मिलींI
“अरे दूध कम है, आज लड़कों को ही दे दोI मंजरी तो समझदार है समझ जाएगीI” माँ ने दोनों भाइयों के गिलास भर दिए थेI
“तुझे पढ़ लिख कर क्या करना है? तू तो समझदार है घर के काम काज पर ध्यान देI” उसकी दादी ने उस पर तुषारापात किया थाI
“तू तो समझदार है बेटी तेरे भाई तो कॉलेज में पढ़ते हैं, उनके लिए नए कपड़े लेना ज़रूरी है, I” बापू ने उसको समझाते हुए कहा थाI
“देख बेटी वर की उम्र ज्यादा है तो क्या हुआ? लेकिन बिना दहेज़ के शादी कर रहा हैI तू तो समझदार है, हमारी हालत तुमसे छुपी है क्या?” माँ की कड़वी लेकिन सच्ची बात ने उसकी भावनाओं को कुचल दिया थाI
“बहू, तुम्हारी जेठानी के भी दो लडकियाँ ही हैंI तुम तो समझदार हो, सोचो अगर तुझे भी बेटी हुई तो वंश आगे कैसे चलेगा?” पेट में बेटी होने का पता चलते ही सासू ने कहा थाI
“तो क्या सोचा मंजरी?” पति के शब्दों से उसकी तन्द्रा टूटीI
“एक बार से लिंग परीक्षण?”
“तो इसमें हर्ज़ ही क्या है? तुम तो खुद समझदार हो......”
पति की बात को बीच में ही काटते हुए अपने पेट पर हाथ रख वह बिफर पड़ी:
“नहीं चाहिए मुझे ये समझदारी का तमगा जो मुझे अजन्मे की हत्या में भागीदार बनाता होI”
पति और सास की आँखों में आश्चर्य और क्रोध के मिश्रित भाव थे, लेकिन मंजरी स्वयं को फूल सा हल्का महसूस कर रही थीI
Greetings from the UK. I enjoyed reading your piece.
ReplyDeleteThank you. Love love, Andrew. Bye.
Thank you so much, Andrew! I hope you keep coming back for more.
DeleteRegards,
Seema!